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Deh Ka Satya

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श्री गणेशाय नम:   :

                      *जय माता दी*

*रात्रि कथा*

               *(((( देह का सत्य ))))*

सातवें दिन मरने वाले राजा परीक्षित को शुकदेवजी श्रीमद्भागवत सुना रहे थे।
.
छः दिन हो चुके थे और अगले ही दिन राजा परीक्षित को तक्षक नाग डसने वाला था।

छः दिन तक श्रीमद्भागवत सुनने के बाद भी राजा का शोक और भय दूर नहीं हुआ।

राजा का विचलित मन देख शुकदेवजी ने एक कथा सुनानी आरम्भ की ।

राजन ! प्राचीन समय की बात है,

एक राजा एक बार आखेट के लिए जंगल में गया।
शिकार के पीछे भागते – भागते वह राजा अपने साथियों से भटक गया। जंगल बहुत घना था और वर्षा भी होने लगी थी।

ऐसी घड़ी में रास्ता ढूँढना उस राजा के लिए दूभर हो गया था। बहुत भटकने के बाद भी उसे रास्ता नहीं मिला।

आख़िरकार सूर्य अस्त हो चूका था और चारों तरफ घना अँधेरा छा चूका था। रात्रि के इस गहन अंधकार में सिंह और चीते आदि जंगली जानवरों की आवाजों से राजा और भी अधिक भयभीत हो रहा था।

अब तो वह किसी तरह रात्रि बिताने के लिए किसी सुरक्षित स्थान की तलाश कर रहा था।
तभी घने अन्धकार में उसे रोशनी की एक किरण दिखाई दी। वह एक बहेलिये की झोपड़ी में दीपक जल रहा था।

जब वह राजा उस झोपड़ी के निकट गया तो देखा कि झोपड़ी से बड़ी दुर्गन्ध आ रही थी।

उसमें एक गन्दा बहेलिया रहता था, जो ज्यादा चल फिर नहीं सकता था इसलिए उसने झोपडी में ही एक तरफ मल – मूत्र का स्थान बना रखा था।
उस झोपड़ी के चारों तरफ उसने मांस लटका
रखा था।

इतनी नरक तुल्य जगह देख राजा अचंभित रह गया लेकिन और कोई उपाय न देख राजा ने बहेलिये से एक रात्रि उस झोपड़ी में बिताने की विनती की।
बहेलिया बोला – अक्सर लोग विश्राम के लिए यहाँ आ जाते है, लेकिन जाने में बड़ा ही झगड़ा करते है। सबको मेरी झोपड़ी परमप्रिय हो जाती है।

इसलिए अब मैंने लोगों को ठहरने की अनुमति देना बंद कर दिया। मैं नहीं चाहता कि आप भी सुबह उठकर मेरी झोपड़ी पर कब्ज़ा जमाये।

इसलिए कृपा करके कहीं और जाइये और मुझे चैन से जीने दीजिये।

और कोई उपाय न जान राजा दीन स्वर में बोला – देखो ! मैं वचन देता हूँ, सूरज की पहली किरण के साथ ही मैं आपकी झोपड़ी छोड़ दूंगा।

मैं तो मज़बूरी में यहाँ आ फंसा हूँ अन्यथा मेरा उद्देश्य और कार्य बहुत ही बड़ा और महान है।
आपसे विनती है कि मुझे मात्र एक रात्रि के लिए आश्रय प्रदान करे।

बहेलिया बोला – ठीक है, एक रात्रि मतलब एक रात्रि, मुझे और कोई झंझट नहीं चाहिए ! समझे।

आखिर राजा को आश्रय मिल ही गया। राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा।

रातभर झोपड़ी की दुर्गन्ध राजा के मन – मस्तिष्क में ऐसे रस – बस गई कि सुबह उठते ही राजा को झोपडी परमप्रिय लगने लगी।

सुबह बहेलिये ने उठते ही महाराज को बोला – महाराज ! उठिए और अपना रास्ता नापिए।

राजा बहेलिये से और अधिक रहने के लिए बोलने लगा। इस पर बहेलिया गुस्से से लाल हो गया और बोला..
मैंने कहा था ना, स्वार्थी लोग मेरी झोपडी पर कब्ज़ा ज़माने आते है। महाराज ! कृपा करके आप चले जाइये।

दोनों में तू – तू मैं – मैं होने लगी।
इतनी कथा सुनाकर शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से पूछा – अब राजन ! आप ही बताओ ?..

उस राजा का अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर उस झोपड़ी में रहने के लिए झगड़ा करना कहाँ तक उचित था ?
परीक्षित बोला – प्रभु ! ये कौन मुर्ख राजा था। जो गन्दी झोपड़ी में अपने राज परिवार को भूलकर और अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर रहने के लिए जिद कर रहा था ?

अचरज होता है ! ऐसा मुर्ख भी कोई राजा हुआ होगा ?

इस पर शुकदेवजी मुस्कुराते हुए बोले – राजन ! वो मुर्ख राजा और कोई नहीं, आप है। जो अब भी मल- मूत्र और मांस की गठरी देह से मोह रखे हुए है।

राजन ! आपका इस देह रूपी गठरी में रहने का काल कल समाप्त हो रहा है तो फिर शोक किसलिए करना ! क्या इसमें आपकी मुर्खता नहीं ?

अब राजा परीक्षित को बोध हो चूका था। वह देह के सत्य से अवगत हो चुके थे। अब वह मृत्यु से निर्भय हो मुक्ति के लिए तैयार थे।

   *रात्रि कथा का तात्पर्य* =  असल में हम सबकी मनस्थिति यही है। जन्म के समय एक बच्चे को याद होता है कि वह कहाँ आ पड़ा। इसलिए वह रोता है।

लेकिन कालान्तर में उसकी वह याददाश्त धीरे – धीरे विस्मृत होने लगती है। और वह इस देह और इसके सम्बन्धियों को ही अपना सब कुछ समझने लगता है।

जब अंत समय आता है तो यही मोह उसके दुःख का कारण बनता है।

ये राजा परीक्षित और कोई नहीं। हममें से ही हर कोई है।

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