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Janiye Garun Bhagwan Kaun Thei aur Unki Utpati Kaise hui

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गरुड़ भगवान कौन थे, उनकी उत्पत्ति कैसे हुई : — 

भगवान का गरुड़ अवतार:- भगवान श्री हरि के वाहन और उनके रथ की ध्वजा में स्थित विनता नन्दन गरूड़ भगवान विभूति हैं। वे नित्य मुक्त और अखण्ड ज्ञान सम्पन्न हैं। उनका विग्रह सर्ववेदमय है, उनके पंख बृहत और रथन्तर हैं, उड़ते समय जिस से सामवेद की ध्वनि निकलती रहती है।

वे भगवान के नित्य परिकर और भगवान के लीलास्वरूप् हैं। देवगण उनके परमात्मरूप की स्तुति करते हुए कहते हैं कि आप ही सभी पक्षियों एवं जीवों के ईश्वर हैं। आपका तेज महान है तथा आप अग्नि के समान तेजस्वी हैं।

 आप बिजली के समान चमकते हैं। आपके द्वारा अविद्या का नाश होता है। आप बादलों की भांति आकाश में स्वच्छन्द विचरण करने वाले महा पराक्रमी गरूड़ हैं। हम सभी आपके शरणागत हैं । श्रीमद भागवत में भगवान का कथन है-‘सुपर्णोऽहं पतत्त्रिणाम’ (श्रीमद0 11।16।15) पक्षियों में मैं गरूड़ हूं। श्रीमद भगवदगीता में भगवान कहते हैं-‘वैनतेयश्च पक्षिणाम’ (गीता 10।30) अर्थात पक्षियों मैं विनता का पुत्र गरूड़ हूं।

 गरूड़ जी का प्रकट होना सतयुग की बात है, दक्ष प्रजापति की दो कन्याएं थीं – कद्रू और विनता। इन दोनों का विवाह महर्षि कश्यप से हुआ। महर्षि कश्यप ने दोनों धर्म पत्नियों को प्रसन्नतापूर्वक वर देते हुए कहा-तुममें जिसकी जो इच्छा हो, वर मांगो लो। कद्रू ने तेजस्वी से एक हजार नागों को पुत्र रूप में पाने का वर मांगा जबकि विनता ने बल, तेज, पराक्रम में कद्रू के पुत्रों से श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र मांगे।

 तुम दोनों यत्नपूर्वक अपने-अपने गर्भ की रक्षा करना कहकर महर्षि कश्यम वन में चले गये। काल का चक्र चलता रहा। कद्रू के पुत्र अपने अण्डों से निकल गये, परंतु विनता के दोनों अण्डों से कोई भी जीव बाहर नहीं निकला।

विनता ने उत्सुकतावश एक अण्डे को फोड़ दिया और देखा कि उसके अंदर उसके पुत्र के शरीर का ऊपरी भाग तो विकसित हुआ है, परंतु निचला भाग अविकसित है। उस बालक ‘अरूण’ ने क्रोध में आकर शाप दिया कि चूंकि उसने उसके शरीर के विकास में बाधा पहुंचायी है, अतः वह कद्रू की दासी बनेगी।

 गीता में परंतु यह भी वर्णन है कि अपनी माँ विनता के अत्यधिक पश्चाताप करने पर उसके बेटे अरुण ने विनता को ढाँढस बँधाया कि ‘उसके दूसरे अण्डे से जो बच्चा निकलेगा, वह शाप से मुक्त रहेगा बस शर्त यह है कि वह धैर्यपूर्वक अण्डे से बालक के निकलने की प्रतीक्षा करे’।

यह कहकर अरूण आकाश में उड़ गये, अरूण सूर्यदेव के रथ के सारथी बन गये। उसके उपरांत समय पूरा होने पर सर्प संहारक गरूड़ जी का जन्म हुआ।

गरूड़ जी की तेजोमयी कांति

गरूड़ जी जन्म से ही महान साहस और पराक्रम से सम्पन्न थे। उनके तेज से सम्पूर्ण दिशाएं प्रकाशित हो रही थीं। उनमें अपनी इच्छा से अनेक रूप धारण करने की क्षमता भी थी। उनका प्राकट्य आकाशचारी पक्षी के रूप में ही हुआ।

वे जलती हुई अग्नि के समान उदित होकर प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित एवं प्रकाशित हो रहे थे। उनका शरीर थोड़ी ही देर में विशाल हो गया तथा भयंकर आवाज के साथ वे आकाश में उड़ गये। सभी देवतागण भगवान के रूप में उनकी स्तुति करने लगे “आप ही प्रभु, तप, सूर्य, परमेष्ठी और प्रजापति हैं। आप ही इन्द्र, हयग्रीव, शिव तथा जगत्पति हैं।

 आप ही भगवान के मुख स्वरूप ब्राह्मण, पद्मयोनि ब्रह्मा तथा विज्ञानवन विप्र हैं। आप ही अग्नि, वायु, धातु, विधाता तथा देवश्रेष्ठ श्री विष्णु हैं। खगश्रेष्ठ! आप अग्नि के समान तेजस्वी इस रूप को शान्त कीजिये। क्रोध में भरे हुए यमराज के समान आपकी कान्ति देख कर हमारा मन चंचल हो रहा है। आप अपना तेज समेट कर हमारे लिये सुखदायक हो जाइये। देवताओं की स्तुति सुनकर गरूड़ जी ने अपने तेज को समेट लिया।

माता की दसत्व मुक्ति हेतु अमृत लाना!!

गरूड़ को माता विनता, सर्पों की माता कद्रू की दासी बन चुकी थीं। इससे गरूड़ को बहुत दुःख होता था, उन्होंने सर्पों से अपनी माता को दास्य भाव से मुक्ति के लिये शर्त जाननी चाही।

इस पर सर्पों ने कहा कि यदि तुम हमें देवलोक से अमृत लाकर दे दो तो तुम्हारी माँ दास्य भाव से मुक्त हो जायगी । अतः गरूड़ ने अमृत कलश लाने का निश्चय किया । अमृत कलश इन्द्र द्वारा रक्षित था, जिनको देवगुरु बृहस्पति ने यह कह कर सर्तक किया कि पक्षिराज गरूड़ महान शक्तिशाली हैं, वे अमृत का हरण करने आ रहे हैं।

 देवगुरू बृहस्पति जी की बात सुनकर सभी देवता युद्ध करने के लिये तैयार हो गये किंतु पक्षिराज गरूड़ को देख कर वे कांप उठे। देवशिल्पी विश्वकर्मा अमृत की रक्षा कर रहे थे, परंतु गरूड़ जी से युद्ध में वे पराजित हो गये। पक्षिराज गरूड़ ने अपने पंखों से धूल उड़ा कर समस्त लोकों में अंधकार कर दिया। देवगणों को अपनी चोंच से बेधकर घायल कर दिया। इसके उपरान्त गरूड़ जी ने अपना लघु रूप बनाकर अमृत का हरण कर लिया।

पक्षिराज गरूड़ को अमृत का अपहरण कर ले जाते देख इन्द्र ने रोष में भरकर वज्र से उन पर प्रहार किया। विहंग प्रवर गरूड़ ने वज्र से आहत होकर हंसते हुए कहा “देवराज! जिनकी हडडी से यह वज्र बना है, उन महर्षि का मैं सम्मान करता हूं। शतक्रतो! उन महर्षि के साथ ही साथ आपका भी मै सम्मान करता हूं, इसलिये अपना एक पंख, जिसका आप अंत नहीं कर पाओगे, उसको मैं त्याग देता हूं। किन्तु स्मरण रहे, आपके वज्र से मैं आहत नहीं हुआ हूं”।

 उस गिरे हुए पंख को देख कर लोगों ने कहा ‘जिसका यह सुंदर पंख है, वह पक्षी सुपर्ण नाम से विख्यात होगा । वज्र की असफलता देख सहस्र नेत्र वाले इन्द्र मन ही मन विचार करने लगे “अहो, यह पक्षिरूप में कोई महान प्राणी है। यह सोच कर इन्द्र ने कहा विहंग प्रवर! मैं आपके बल को जानना चाहता हूं, और आपके साथ ऐसी मैत्री स्थापित करना चाहता हूं, जिसका कभी अंत न हो”।

“शतक्रतो! साधु पुरूष स्वेच्छा से अपने बल की प्रशंसा तथा अपने ही मुख से अपने गुणों का बखान अच्छा नहीं मानते, किंतु सखे! तुमने मित्र मानकर पूछा है, इसलिये मैं बता रहा हूं”।

“हे इन्द्र! पर्वत, वन और समुद्र के जल सहित सारी पृथ्वी को तथा इसके ऊपर रहने वाले आपको भी अपने एक पंख पर उठाकर मैं बिना परिश्रम के उड़ सकता हूं अथवा सम्पूर्ण चराचर लोकों को एकत्र करके यदि मेरे ऊपर रख दिया जाय तो मैं सबको बिना परिश्रम ढो सकता हूं। इससे तुम मेरे महान बल को समझ लो”।

अमृत लेकर लौटते समय भगवान से वर प्राप्ति।

भगवान विष्णु ने गरूड़ जी के पराक्रम से संतुष्ट होकर उन्हें वर मांगने के लिये कहा। गरूड़ जी ने वर मांगा “हे प्रभो! मैं आपके ध्वज में स्थित हो जाऊं। हे भगवन! मैं बिना अमृतपान के ही अजर-अमर हो जाऊं”। भगवान ने एवमस्तु कह कर वर प्रदान किया। उसके उपरान्त गरूड़ जी ने भगवान विष्णु जी को वर मांगने को कहा।

भगवान विष्णु ने वर मांगा “तं वव्रे वाहनं विष्णुर्गरूत्मन्तं महाबलम्।। महाबली गरूत्मन! आप मेरे वाहन हो जायं। इस प्रकार भगवान विष्णु ने गरूड़ को अपना वाहन बनाया और अपने ध्वज के ऊपर स्थान भी दिया। अमृत प्राप्त कर गरूड़ जी ने नागों के सामने अमृत रखकर अपनी माता विनता को दासत्वमुक्त करा लिया।

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